बछवाड़ा, संवाददाता:-
देश की आजादी के बाद पहली बार 1951 में बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र अपने अस्तित्व में आया। तत्कालीन भौगोलिक स्थिति एवं राजनैतिक नक्शे के अनुसार बछवाड़ा मुंगेर जिले का हिस्सा हुआ करता था। तब के दौर में नये नवेले मिली आज़ादी के कारण प्रत्येक नागरिकों के दिलों में राष्ट्रवाद की ज्वाला भड़क रही थी। देश एवं राज्य की मनोनीत सरकार को निर्वाचित व लोकतांत्रिक स्वरूप देने के उद्देश्य से लोकसभा एवं विधानसभा को अस्तित्व में लाया गया। बछवाड़ा विधानसभा के अस्तित्व में आने के बाद सर्वप्रथम 1951 में सम्पन्न हुए निर्वाचन में स्वतंत्रता सेनानी मिट्ठन चौधरी इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी की टिकट पर विजयी होकर विधायक बने। तब के परिवेश में फाॅरवार्ड अपने वर्चस्व के लिए संघर्षरत था, वहीं बैकवर्ड अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। इन्हीं दो आपसी संघर्ष के बीच समाजवादी पार्टी का उदय हुआ। इसके ठीक बाद वर्ष 1957 में हुए विधानसभा चुनाव में इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी के मिट्ठन चौधरी को मुंह की खानी पड़ी, और पीएसपी के बैधनाथ प्रसाद सिंह विजय हो गये। मगर समाजवाद की यह हवा आंधी नहीं बन सकी। तब के दौर में समाजवादी विचारधारा पर कांग्रेस का राष्ट्रवाद के सामने टिक नहीं सकी। और 1962 के विधानसभा चुनाव में एक बार पुनः यह सीट इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी के पाले में चली गयी। लिहाजा इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी के गिरिश कुमारी सिंह को विजयश्री की माला हाथ लगी। 1962 के इस विधानसभा चुनाव में करारी हार से पीएसपी के उम्मीदवार बैधनाथ प्रसाद सिंह हताश हो गये । करारी हार से घबराए उक्त नेता पीएसपी नेता नें धारा के विपरित संघर्ष में टिक नहीं सके। लिहाजा पीएसपी एक नये खेवनहार की तलाश कर रही थी। ऐसी स्थिति में श्री सिंह नें 1967 के चुनाव से ठीक पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया। लगे हाथ कांग्रेस पार्टी नें भी श्री सिंह को विधानसभा चुनाव में बड़ी उम्मीद के साथ उम्मीदवार बनाया। श्री सिंह भी अपने नए पार्टी के उम्मीद पर खरे उतरते और सफल उम्मीदवारी दिखाया। नतीजतन 1967 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर बैधनाथ प्रसाद सिंह जीत दर्ज कर विधानसभा पहुंचे गये। मगर श्री को उम्मीदवार बनाए जाने से बछवाड़ा के स्थानीय कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ताओ में अंतर्कलह उत्पन्न हो गया। पार्टी के एक खेमे का यह मानना था कि पुराने कार्यकर्ता जिन्होंने लम्बे समय संघर्ष के बदौलत खुश पसीने से सींचकर पार्टी को मुकाम तक लाया। मगर अब जब उन कार्यकर्ताओं को उनके संघर्ष के ईनाम पाने की की बारी आई तो टिकट नये कार्यकर्त्ता झटक ले गए। पार्टी के अंतर्कलह को दुर करने के ख्याल से कांग्रेस नें 1969 के विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी बदले पर विचार कर रही थी। हुआ भी ऐसा हीं चुनावी मैदान में नारेपुर अयोध्या टोल के भुवनेश्वर राय को उतारा। वामदलों व सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवारों के बीच से अपना रास्ता बनाते हुए सीधे विधानसभा पहुंच गए। बहुत कम मतों से कांग्रेस की जीत पर सोशलिस्ट पार्टी व वामदलों को अपनी मंजिल नजदीक दिखने लगी। ऐसे में कांग्रेस पार्टी सीट को अपने पाले में बरकरार रखने के नुस्खे तलाश रही थी। बछवाड़ा विधानसभा क्षेत्र यदुवंशी बाहुल्य होने के कारण यादव कार्ड खेलते हुए 1972 के विधानसभा चुनाव में युवा उम्मीदवार रामदेव राय को अपना सियासी घोड़ा बनाया। श्री राय को उनके सर्वजातीय मतदाताओं का भरपूर समर्थन तो मिला हीं साथ हीं क्षेत्र के पिछड़ा व स्वर्ण पार्टी समर्थकों का भी भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ। लिहाजा 1972 के विधानसभा चुनाव में भारी मतों जीतकर पहली बार विधानसभा पहुंचे। यह वो दौड़ था जब बेगूसराय जिला मुंगेर से अलग हो कर अपने अस्तित्व में आया। कांग्रेस पार्टी का यह शोध बिल्कुल कामयाब रहा । इसके बाद एक बार पुनः 1977 के चुनाव में भी जीत हासिल की। लिहाजा कांग्रेस पार्टी के गणितीय सूत्र एवं जातिगत आधार पर बने समीकरण के आगे विरोधी दल खार खाने लगे। लगातार तीसरी मर्तवा भी 1980 के विधानसभा चुनाव में रामदेव राय रिकार्ड मतों से विजयी हुए। कांग्रेस पार्टी के इस समीकरण का जबाव के उद्देश्य से सीपीआई नें पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाले अयोध्या प्रसाद सिंह को चुनावी केवट बनाकर नैया पार लगाने की तैयारी कर ली। लिहाजा वर्ष 1985 के विधानसभा चुनाव में अयोध्या प्रसाद सिंह को कांग्रेस के बने बनाए गढ़ को तोड़ने उम्मीदवार बनाया। कम मतों के अंतर से हीं सही मगर सीपीआई प्रत्याशी नें जीत हासिल कर ली। कांग्रेस इस हार को महज़ एक घटना मानकर यदुवंशी कार्ड खेलना जारी रखा। इधर सीपीआई को कम मतों के अंतर से हुए जीत हार को लेकर भविष्य की चिंता सता रही थी। वर्ष 1990 के चुनाव में कांग्रेस के यदुवंशी उम्मीदवार रामदेव राय को शिकस्त देने के लिए यादव कुल में जन्मे अवधेश कुमार राय को मैदान में उतार दिया। अब दो यादवों की आमने-सामने की टक्कर में सीपीआई के अवधेश राय नें बाज़ी मार ली। इस प्रकार दुसरी बार सीपीआई के पाले में गेंद चली गयी। अवधेश राय के विधायक बनने के बाद संगठन में पिछड़ा, अति पिछड़ा वर्ग के समेत सभी वर्गों के लोग जुड़कर पार्टी संगठन में नयी जान फुंक दी। इसके ठीक बाद वर्ष 1995 में सीपीआई नें अवधेश राय को मैदान में उतारा। जबरदस्त उपस्थिति दर्ज कराते हुए जीत हासिल की। तत्कालीन दौर में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की जबरदस्त लहर चल रही थी। वर्ष 2000 के चुनाव में लालू की लहर में सीपीआई की नौका डुब गयी। और कम मतों के अंतर से राजद प्रत्याशी उत्तम कुमार यादव विधानसभा पहुंच गए। वर्ष 2005 में कांग्रेस पार्टी की ओर से रामदेव को टिकट नहीं मिला। नतीजतन श्री राय निर्दलीय हीं मैदान में कुद पड़े। भाजपा प्रत्याशी डॉ विद्यापति राय का नामांकन रद्द हो जाने के कारण इस निर्दलीय प्रत्याशी को भाजपा का समर्थन प्राप्त हो गया। बछवाड़ा के लोहिया मैदान में वरिष्ठ भाजपा नेता शहनवाज हुसैन हेलिकॉप्टर प्रचार करने पहुंचे थे। कांग्रेस राजद के साथ गठबंधन धर्म का पालन कर रही थी। भाजपा के बाहरी समर्थन के बाद कांग्रेस के बागी रामदेव राय चुनाव जीत गए। इस प्रकार 1985 से 2005 बीस वर्षों की अवधि में रामदेव राय के डुब चुकी नैया भाजपा के रूप में तिनके का सहारा मिल गया। किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने व लोजपा के रामविलास पासवान के द्वारा चाभी लेकर बैठ जाने के प्रकरण के कारण किसी की भी सरकार नहीं बन पाई थी। राष्ट्रपति शासन के बाद पुनः चुनाव का दौर आ गया। मध्यावधि चुनाव में राजद कांग्रेस गठबंधन नें रामदेव राय को टिकट दे दिया। एक बार फिर रामदेव राय चुनाव जीत गए। इसके ठीक बाद 2010 के चुनाव में पुनः अवधेश कुमार राय जीत गए। इधर सत्ता दुर लालू प्रसाद यादव महागठबंधन का चक्रव्यूह रच रहे थे। महागठबंधन की आंधी में रामदेव राय भारी मतों जीतकर जीत छठी बार विधानसभा पहुंचने का रिकॉर्ड बना लिया। अब 2020 के विधानसभा चुनाव का दौर चल रहा है। ये अनबुझी पहेली बनी है कि सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा। और उन यदुवंशियों के लिए भी कठिन परिक्षा की घड़ी होगी जो बेगूसराय जिले की स्थापना काल से हीं लगातार पैंतालीस साल से बछवाड़ा सीट पर यदुवंशियों का कब्जा रहा है।
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